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इ꣣ष्टा꣡ होत्रा꣢꣯ असृक्ष꣣ते꣡न्द्रं꣢ वृ꣣ध꣡न्तो꣢ अध्व꣣रे꣢ । अ꣡च्छा꣢वभृ꣣थ꣡मोज꣢꣯सा ॥१५१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इष्टा होत्रा असृक्षतेन्द्रं वृधन्तो अध्वरे । अच्छावभृथमोजसा ॥१५१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣣ष्टाः꣢ । हो꣡त्राः꣢꣯ । अ꣣सृक्षत । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वृ꣣ध꣡न्तः꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । अ꣡च्छ꣢꣯ । अ꣣वभृथ꣢म् । अ꣣व । भृथ꣢म् । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥१५१॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 151 | (कौथोम) 2 » 2 » 1 » 7 | (रानायाणीय) 2 » 4 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यजमानों का व्यवहार वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अध्वरे) हिंसादि दोषों से रहित अग्निहोत्र में, जीवन-यज्ञ में अथवा उपासना-यज्ञ में (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशाली, दुःखविदारक, मुक्तिदायक परमात्मा को (वृधन्तः) बढ़ाते हुए अर्थात् उत्तरोत्तर हृदय में विकसित करते हुए यजमानगण (ओजसा) बलपूर्वक अर्थात् पूरे प्रयास से (अवभृथम् अच्छ) यज्ञान्त स्नान को लक्ष्य करके अर्थात् हम शीघ्र यज्ञ को पूर्ण करके यज्ञान्त स्नान करें, इस बुद्धि से (इष्टाः) अभीष्ट (होत्राः) आहुतियों को (असृक्षत) छोड़ते हैं ॥ यहाँ यह अर्थ भी ग्रहण करना चाहिए कि राष्ट्रयज्ञ को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए पूरे प्रयत्न से राजा को बढ़ाते हुए अर्थात् अपने सहयोग से शक्तिशाली करते हुए प्रजाजन राष्ट्र के लिए सब प्रकार का त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं ॥७॥

भावार्थभाषाः -

अग्निहोत्र, जीवनयज्ञ, ध्यानयज्ञ, राष्ट्रयज्ञ, सभी यज्ञ आहुति देने से, परार्थ त्याग करने से या आत्मबलिदान करने से पूर्णता को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ यजमानानां व्यवहारमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अध्वरे) हिंसादिदोषरहितेऽग्निहोत्रे जीवनयज्ञे उपासनायज्ञे वा (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशालिनं दुःखविदारकं मुक्तिदायकं परमात्मानम् (वृधन्तः) वर्धयन्तः उत्तरोत्तरं हृदि विकासयन्तो यजमानाः (ओजसा) बलेन, पूर्णप्रयत्नेन (अवभृथम् अच्छ) यज्ञान्तस्नानम् अभिलक्ष्य, वयं सद्यः यज्ञं सम्पूर्य यज्ञान्तस्नानं कुर्यामेति बुद्ध्या (इष्टाः) अभीष्टाः (होत्राः) आहुतीः (असृक्षत) विसृजन्ति, प्रयच्छन्ति। सृज विसर्गे दिवादेर्लुङि प्रथमपुरुषबहुवचने रूपम्। लडर्थे लुङ् ॥ राष्ट्रयज्ञं पूर्णतां नेतुं पूर्णप्रयासेन इन्द्रं राजानं वर्धयन्तः स्वसहयोगेन शक्तिशालिनं कुर्वन्तः प्रजाजनाः राष्ट्राय सर्वविधं त्यागं कर्तुमुद्यता भवन्तीत्यर्थोऽप्यनुसन्धेयः ॥७॥

भावार्थभाषाः -

अग्निहोत्रं वा, जीवनयज्ञो वा, ध्यानयज्ञो वा, राष्ट्रयज्ञो वा, सर्वोऽपि यज्ञ आहुतिविसर्जनेन, परार्थत्यागेनात्मबलिदानेन वा पूर्णतां गच्छति ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९३।२३, ऋषिः सुकक्षः,। वृधन्तो इत्यत्र वृधासो इति पाठः।